डॉ. नवीन रमन
चंडीगढ़,
अक्टूबर 31
हाल ही में ओम प्रकाश धनखड़ की जगह नायब सिंह सैनी को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) हरियाणा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया, जिसको लेकर विविध राजनीतिक प्रतिक्रियायें सामने आई जिसमें दो विचार मुख्य रहे; एक ये की इस बदलाव से भाजपा ने हरियाणा में पिछड़ा वर्ग व गैर-जाट वोटों पर अपना दावा पक्का कर दिया, तो दूसरा विचार ये कि सत्तारूढ़ पार्टी ने जाटों में अपना बचा-खुचा अस्तित्व भी खतरे में डाल दिया है।
गौरतलब है कि, गत विधानसभा चुनाव के बाद ज़रूरतवश भाजपा और जननायक जनता पार्टी (जजपा) को मिलकर सरकार बनानी पड़ी थी, जिसके परिणामस्वरूप गैर-जाट खासकर पिछड़ा वर्ग खुद को भाजपा समर्थक होने के लिए कोसने लगा था, जबकि दुष्यंत चौटाला की नेतृत्व वाली जजपा को भाजपा के साथ गठबंधन के लिए जाट वोटरों की निंदा सामना करना पड़ा।
गठबंधन की सरकार का मलाल तब से अब तक दोनों तमगों; भाजपा के गैर-जाट समर्थकों व जजपा के जाट समर्थकों के भीतर पल रहा था।
दूसरा डिप्टी सीएम और प्रदेश अध्यक्ष दोनों के जाट होने से कहीं न कहीं भाजपा नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को यह बात अक्सर खटकती जरूर थी।
ऐसे में, धनखड़ की जगह सैनी को प्रदेशध्यक्ष बनाकर बीजेपी ने अपनी राजनीतिक मंशा व ईशारा साफ कर दिया है।
बीजेपी के हरियाणा में प्रदेश अध्यक्ष बदलते ही आकलन किया जाने लगा कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के कहने पर शीर्ष नेतृत्व ने ये बदलाव किया है।
सीएम मनोहर लाल की मर्जी से प्रदेश अध्यक्ष नायब सैनी को बनाए जाने का एक सीधा फायदा तो यह साफ दिख रहा है कि अब सरकार और संगठन में किसी तरह का विरोधाभास नहीं रहेगा। यह सर्वविदित है कि हर पार्टी का सीएम अपनी मर्जी का प्रदेश अध्यक्ष चाहता है, ताकि सरकार बिना अवरोध के चल सकें।
एक तर्क ये भी है कि इस बदलाव से पार्टी के नेताओं को यह संदेश दिया है कि प्रदेश में मनोहर लाल ही ऑल इन वन हैं, क्योंकि सैनी मनोहर लाल के नजदीकी हैं और शायद भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने सीएम मनोहर लाल के नेतृत्व में चुनाव लड़ने के फैसले पर मोहर लगा दी है।
अब सवाल यह है कि हरियाणा में अब तक चले आ रहे जाट प्रदेश अध्यक्ष और गैर-जाट सीएम के फॉर्मूले में आखिर यह बदलाव क्यों किया गया है?
यह वर्तमान की जरूरत ज्यादा लग रही है। क्योंकि वर्तमान में जेजेपी के साथ गठबन्धन होना और डिप्टी सीएम की कुर्सी पर दुष्यंत चौटाला का विराजमान होना सबसे बड़ा कारण रहा है।
माना जा रहा है कि प्रदेशध्यक्ष वाला बदलाव हाल ही में मुख्यमंत्री खट्टर की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाक़ात के बाद हुआ है। सूत्रों की मानें तो प्रदेश अध्यक्ष ओपी धनखड़ को बदलने के लिए सीएम की तरफ से सबसे बड़ी दलील जेजेपी का गठबन्धन में साथ होने की दी गई है। ऐसे में संभावनाएं अब यही हैं कि सीएम जेजेपी को साथ लेकर ही चुनाव में उतरेंगे। इसीलिए उन्होंने ओबीसी को प्रदेश अध्यक्ष बनवाया है।
सीएम मनोहर लाल के एक ‘खासम-खास’ tobपत्रकारों के माध्यम से पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ओपी धनखड़ पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वो मुख्यमंत्री कार्यालय और कार्यकर्ताओं के बीच की दूरियां पूरी तरह से खत्म करने में कामयाब नहीें हो सके।
पर क्या सीएम मनोहर लाल और बीजेपी की मूल राजनीति जाट-गैर जाट के इर्द-गिर्द रहेगी? इस बदलाव से यह संदेश धरातल तक पहुंचा जरूर है। अब इसका परिणाम क्या होगा, यह समय ही बता पायेगा।
आखिर सीएम मनोहर लाल के इस फैसले के पीछे क्या रणनीति है? सीएम मनोहर लाल को लगता है कि डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला को साथ लेकर चलने से अपनी कुर्सी सदा सुरक्षित रख पाएंगे। दूसरी तरफ बीजेपी के जाट नेताओं पर नकेल भी कसी रहेगी।
आखिर सीएम ने पीएम को क्या दलील देकर प्रदेश अध्यक्ष को बदलवाया?
सीएम मनोहर लाल ने पीएम मोदी को यह भी दलील दी है कि ओपी धनखड़ को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने पर जाट वोटों का पार्टी को जितना नुकसान होगा, उससे ज्यादा की भरपाई डिप्टी सीएम के माध्यम से हो जाएगी। दूसरी तरफ यह भी कहा कि उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाए रखने से पार्टी को ज्यादा फायदा नहीं मिल रहा है।
कहा जा रहा है कि एक सर्वे का हवाला देते हुए मुख्यमंत्री खट्टर ने केंद्रीय नेतृत्व से कहा कि धनखड़ अपनी बादली सीट भी हार रहे हैं और लोकसभा चुनाव में भी बादली से बीजेपी को हार ही मिलने वाली है। ऐसे में कार्यकर्ताओं में पार्टी को लेकर नकारात्मक संदेश जा सकता है।
ऐसे में कह सकते हैं कि अपने खास सैनी को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाकर सीएम मनोहर लाल ने भाजपा में अपने विरोधियों जैसे कि गृहमंत्री अनिल विज को भी साफ संदेश दिया है कि वो सीएम की कुर्सी पर बैठने के सपने देखना अब बन्द कर दें, क्योंकि नवनियुक्त प्रदेश अध्यक्ष उन्हीं की लोकसभा नारायणगढ़ से है।
जाहिर तौर पर सीएम मनोहर लाल के इस राजनीतिक फैसले से आगामी निगम एवं नगरपालिका चुनाव के साथ लोकसभा में भी फायदा मिलता हुआ नजर आ रहा है क्योंकि गत निकाय चुनावों में भी भाजपा ने अधिकतर जगहों पर ओबीसी कार्ड खेला था जोकि कामयाब भी रहा।
हालांकि,विधानसभा चुनाव पर इसका क्या असर रहेगा, यह कहना अभी जल्दबाजी होगी।
इस तर्क को भी ध्यान में रखा जाए कि धनखड़ को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाए जाने से जाटों में भी नाराज़गी है और इसका खामियाजा शायद बीजेपी को जाट बाहुल्य क्षेत्रों में भुगतना पड़े।
यहाँ तक कि भाजपा के टिकटों पर चुनाव लड़ने के इच्छुक अधिकांश उम्मीदवारों ख़ासकर जाट भाजपाइयों को विरोध का सामना भी करना पड़े।
अब बात आती है ये कि जाटों की भाजपा के लिए इस नाराज़गी का फायदा किस जाट नेता को मिलेगा?
सबसे मजबूत राजनीतिक तर्क ये है कि धनखड़ को बदलने से सीधा फायदा पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा को मिलेगा। शायद, बीजेपी ने प्रदेश अध्यक्ष धनखड़ को हटाकर कांग्रेस के पूर्व सीएम हुड्डा को जाटों का एकमात्र विकल्प बना दिया है।
गौरतलब है कि इनेलो और जेजेपी के विभाजन से लोकदली माइंडसेट के जाट दुष्यंत चौटाला के साथ बड़ी संख्या में जुड़ गए थे, परन्तु 2019 में दुष्यंत चौटाला ने बीजेपी के साथ गठबन्धन में सरकार बना ली। जिसके कारण जाटों में दुष्यंत चौटाला के प्रति नाराजगी बढ़ गई।
दूसरी तरफ इनेलो नेता अभय चौटाला पार्टी को मजबूती देने में नाकाम रहे। अब बीजेपी ने ओपी धनखड़ को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से हटाकर जाटों को बीजेपी से दूर रहने का साफ संदेश दे दिया है।
ऐसे में पूर्व सीएम हुड्डा को घर बैठे पूरे प्रदेश में जाटों का बम्पर समर्थन मिलता हुआ लग रहा है, क्योंकि अब जाटों के पास उनके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। दूसरी तरफ बीजेपी के जाट नेताओं की सीट अब खतरे में पहुंच गई हैं।
2024 के लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में जाटों की एकमुश्त कांग्रेस को वोट मिलना तय लग रहा है।